प्रबोधन / निशांत-केतु / सुरेन्द्र ‘परिमल’
नगरी प्रयाग शुचि, सौध खाड़;
अम्बर में पुण्य-प्रताप ठाढ़।
चमचम स्वर्णाभ भवन सुन्दर,
बहुवाग-वाटिका अति प्रियवर।
आकाश वेद-ध्वनि सें गुंजित,
बम-बम, हर-हर दिक्-दिक् कुंजित।
ई तीर्थराज महिमा भरलोॅ!
भक्ति के नशा यहाँ चढ़लोॅ।
कुटिया-कुटिया में राम यहाँ,
पग-पग पर छै अभिराम यहाँ।
ऋषि भरद्वाज अैलोॅ झपकल
युग-भ्रात-शीश अवनत तत्पल।
-”हमरा सब ज्ञात, तों धीर धरोॅ
ग्लानी तजि जन-मन पीर हरोॅ
-”सुख-दुख जीवन के नियत जाल
के मेटे पारे अंक-भाल।
भावीवश, रानी के बुद्धि मंद
वन-गमन राम, हिय शूल-कंद।
-”तों व्यर्थ नियति पर छ उदास,
चिंता छोडोॅ फेंको निराश।
संतोष, राम उर जानी कें
तों पिता वचन उर आनी कें।
-”धरती के चिंतन में लागोॅ;
अपनोॅ करतब सें नै भागोॅ।
शीलोज्ज्वल दर्शन, हम सब निहाल।
यश-सिंधु बीच चमचम प्रबाल।“
सुनिकें मुनिवर के उद्वोधन,
अन्तः सें टपकै आँसू-कण।
-”हे आर्यश्रेष्ठ! हम कुल कलंक,
हमरा लेल माता-वचन डंक।
अब छिन्न-भिन्न कौशल नगरी,
प्रति नयन अश्रु, हत-प्रभ डगरी।
-”ई दोष पिता नै, माता के,
अथवा दुर्भाग्य विधाता के!
जल-कमल केना वन में रहतै,
अँधड़ प्रचंड कठोर सहतै!“
अतिशय विशाल ऐश्वर्य-प्राण,
समृद्धि सजलोॅ वैभव-वितान
सबके स्वागत-पूर्वक निवास;
रूचिकर रचना, रूचिकर विलास।
मधुऋतु के क्षण-क्षण मधुवर्षण,
उल्लसित प्रकृति नव आकर्षण।
मृदु-मंद पवन भरलोॅ चंदन
जन-जन के करै हृदय-वंदन।
सब दास-दासियाँ चकित मना,
उत्फुल्ल बदन, उल्लास घना।
पर, भरत हृदय नै भावै छै,
प्रभु-ध्यान हमेशा आवै छै।
यद्यपि छै भोग-विलास नीकोॅ
पर भरत-दृष्टि में सब फीकोॅ।
ऊ तरफ नजर नै, आत्मलीन;
चिंतन में डुबलोॅ सजल-दीन।
करि तीर्थराज में स्नान-ध्यान,
ऋषि-मुनि के अर्पित सविनय प्रणाम;
सब वचन हृदय में राखी कें,
अपनोॅ उलझन कें भाखी कें।
शत्रुघ्न, सखा-पुरवासी संग,
अपनोॅ असीम दुख में निसंग,
अवधेश भरत आगां प्रयाण।
प्रिय राम लखन, सिय मुदित गान।
अनुराग राग सें भरलोॅ छै;
दरसन के कांक्षा चढ़लोॅ छै।
भीतर समुद्र लहरावैछै,
चरणोॅ के प्यास जगावै छै।
भ्रातृत्व-प्रेम सें भरलोॅ मन
पुलकित रोमांचित आकुल तन।