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प्रभात / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
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रंगीन गगन
ऊँचे पर्वत
घाटी मैदान
कि फैला है सुनसान !
हरे-हरे अगणित पेड़
कतारों में खड़े सघन
हिलते पल्लव
प्रतिक्षण-प्रतिपल
बहता शीतल मंद पवन
रंगीन गगन !
मेरा तन
बिस्तर पर लोट लगाता है,
आँखें मीचे
नींद परी को
दूर कहीं से
मौन बुलाता है !
मुन्नी जाग गयी है
कहती जो —
‘सुबह हुई
ओ बाबूजी, उठो-उठो !’