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प्रभुकी महत्ता और दयालुता / तुलसीदास/ पृष्ठ 10

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तीर्थराजसुषमा,

( छंद 144) 1

(144)

देव कहैं अपनी-अपना,
अवलोकन तीरथराजु चलो रे।

 देखि मिटैं अपराध अगाध,
निमज्जत साधु -समाजु भलो रे।।

सोहै सितासित को मिलिबो,
तुलसी हुलसै हिय हेरि हलोरे ।

मानो हरे तृन चारू चरैं,
बगरे सुरधेनुके धौल कलोरे।।


अन्नमूर्णामहात्म्य,

( छंद 148) 1

(148)

लालची ललात , बिललात द्वार-द्वार दीन,
 बदन मलीन, मन मिटै ना बिसूरना।

 ताकत सराध, कै बिबाह , कै उछााह कछू,
 डोलै लोल बूझत सबद ढोल-तूरना।।

 प्यासेहूँ न पावै बारि, भूखें न चनक चारि,
 चाहत अहारन पहार, दारि घूर ना।

सोकको अगार , दुखभार भरो तौलौं जन ,
जौलौं देबी द्रवै न भवानी अन्नपूरना।।