प्रभुकी महत्ता और दयालुता / तुलसीदास/ पृष्ठ 11
श्रीगंगामात्म्य, ( छंद 145 से 147 तक) 1
(145)
देवनदी कहँ जो जन जान किए मनसा, कुल कोटि उधारे।
देखि चले झगरैं सुरनारि, सुरेस बनाइ बिमान सँवारे।।
पूजाको साजु बिरंचि रचैं तुलसी, जे महातम जाननिहारे।
ओककी नीव परी हरिलोक बिलोकत गंग! त्रंग तिहारे।।
(146)
ब्रह्मु जो ब्यापकु बेद कहैं,गम नाहिं गिरा गुन-ग्यान -गुनीको।
जो करता , भरता, हरता, सुर-साहेबु, साहेबु दीन-दुनीको।।
सोइ भयो द्रवरूप सही, जो है नाथु बिरंचि महेस मुनीको।
मानि प्रतीति सदा तुलसी जलु काहे न सेवत देवधुनीको।।
(147)
बारि तिहारो निहारि मुरारि भएँ परसें पद पापु लहौंगो।
ईसु ह्वै सीस धरौं पै डरौं, प्रभुकी समताँ बड़े दोष दहौंगो।।
बरू बारहिं बार सरीर धरौं , रघुबीरको ह्वै तव तीर रहौंगो।
भागीरथी! बिनवौं कर जोरि, बहोरि न खोरि लगै सो कहैांगो।।