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प्रभुकी महत्ता और दयालुता / तुलसीदास/ पृष्ठ 5

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प्रभुकी महत्ता और दयालुता-4

 ( छंद 132, 133)

(132)

अवनीस अनेक भए अवनीं, जिनके डरतें सुर सोच सुखाहीं।
 मानव-दानव-देव सतावन रावन घाटि रच्यो जग माहीं। ।

ते मिलिये धरि धूरि सुजोधनु , जेच लते बहु छत्रकी छाँही।
बेद-पुरान कहैं , जगु जान, गुमान , गोबिंदहि भावत नाहीं।।

 
गोपियों की अनन्य प्रेम, ( छंद 133 से 135 तक) 1
(133)

जब नैनन प्रीति ठई ठग स्याम सों, स्यानी सखी हठि हौं बरजी।
नहिं जानो बियोगु-सो रोगु है आगे ,झुकी तब हौं तेहि सों तरजी।।

  अब देह भई पट नेहके घाले सों, ब्यौंत करै बिरहा-दरजी।
 ब्रजराजकुमार बिना सुनु भृंग! अनंगु भयो जियको गरजी।।