विनय,
 ( छंद 136 से 137 तक)			  1
(136) 
हनुमान ! ह्वै कृपाल , लाडिले लखनलाल!
भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू। 
बिनती करत  दीन दूबरो दयावनो सो, 
बिगरतें  आपु ही सुधारि लीजै भाय जू ।
 मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति , 
देबि क्यों न दास को देखाइयत पाय जू। 
खीझहूमें रीझिबेकी बानि, सदा रीझत हैं, 
रीझे ह्वैहैं , रामकी दोहाई , रघुराय जू।।
(137) 
बेषु  बिराग को, राग भरो मनु माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
 तेरे ही नाथको नामु लै  बेचि हौं  पातकी पावँर प्राननि पोसों। ।
 एतें बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ  मोसों। 
स्वारथको परमारथको परिपूरन भो, फिरि घाटि  न होसों।।