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प्रभुकी महत्ता और दयालुता / तुलसीदास/ पृष्ठ 7
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विनय,
( छंद 136 से 137 तक) 1
(136)
हनुमान ! ह्वै कृपाल , लाडिले लखनलाल!
भावते भरत! कीजै सेवक-सहाय जू।
बिनती करत दीन दूबरो दयावनो सो,
बिगरतें आपु ही सुधारि लीजै भाय जू ।
मेरी साहिबिनी सदा सीसपर बिलसति ,
देबि क्यों न दास को देखाइयत पाय जू।
खीझहूमें रीझिबेकी बानि, सदा रीझत हैं,
रीझे ह्वैहैं , रामकी दोहाई , रघुराय जू।।
(137)
बेषु बिराग को, राग भरो मनु माय! कहौं सतिभाव हौं तोसों।
तेरे ही नाथको नामु लै बेचि हौं पातकी पावँर प्राननि पोसों। ।
एतें बड़े अपराधी अघी कहुँ, तैं कहु, अंब! कि मेरो तूँ मोसों।
स्वारथको परमारथको परिपूरन भो, फिरि घाटि न होसों।।