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प्राणों के दीप जलाये / लीलावती भँवर 'सत्य'

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प्राणों के दीप जलाये, कब से पथ हेर रही हूँ;
भावों के सुमन मनोहर सब आज बिखेर रही हूँ।
श्वासों की धूप बानकर जीवन नैवेद्य बनाया;
तब चरणों की पूजा को मैंने है साज सजाया।
आओ, चिर-संचित मेरी यह साध पूर्ण होने दो;
निज पद-रज में हे प्रियतम! अपना मन खोने दो।
फुलवारी में मैं आई, लख उषा का मुसकाना;
फिर देखा ओस-बिन्दु मिस पुष्पों का अश्रु गिराना।
नर्तन लख मुग्ध शिखी का मैंने नभ ओर निहारा;
निष्प्रभ नीरद-बाला के नयनों से छुटा छुआरा।
नभ छाना, पृथ्वी खोजी, पर चिन्ह न कुछ भी पाया,
हा! आज बिलखती-रोती मेरी आशा की छाया।
कर चूर्ण सभी अभिलाषा ये प्राण उन्हें ध्यावेंगे;
दूँगी अस्तित्व मिटा निज, फिर देव स्वयं आवेंगे।

जग के झूठे वैभव को, फिर देव स्वयं आवेंगे।
कुम्हलाये आशा-कुसमों से, पुनः न अंक भरूँगी मैं॥
रोम-रोम में रमो तुम्हीं नित-नाम तुम्हारा ही गाऊँ।
इच्छा है बस यही, तुम्हारे-चरणों की रज बन जाऊँ।

देकर दर्शन चाहे प्रियवर, तुम हमको कृतकृत्य करो।
अथवा रहकर दूर-दूर ही, नित्य हृदय को व्यथित करो॥
इच्छा हो तो जीभरकर तुम, नित मेरा अपमान करो।
अथवा होकर सदय प्रेममय, प्रकट मधुर मुसकान करो॥
दुख देने में सुखी रहो यदि, तो तुम नित नव दुख देना।
किन्तु न स्वत्व हमारा तुम यह, हसमे कभी छीन लेना॥
होगा ग्लान नहीं मुख मेरा, चाहे जो व्यवहार रहे।
रक्खूँगी मैं मनमन्दिर में, पूजा का अधिकार रहे॥