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प्राण / प्रिया जौहरी
Kavita Kosh से
क्या देखूँ आँखे खोल कर
ये प्रपंच से भरा संसार
बेसुध हैं सब अपने-अपने संसार में
किसी की चिंता नही
सुध नहीं किसी की
यहाँ तक की अपनी भी नही
कितना कुछ घट रहा है
दुनिया के अलग अलग हिस्सों में
हर पल हर क्षण
कोई रो रहा होगा
तो कोई हँस रहा होगा
कोई बोल रहा होगा
तो कोई होगा कई सदियों से बस चुप
झरने में बहते हुए पानी को
देख ये महसूस होता है कि
पानी की तरह हम सब भी तो बह रहे हैं
किसी मानवीय सत्ता के लिए
किसी अन्त शक्ति की चाह में
पर जीवन की समाप्ति के बाद
सिर्फ स्मृतियों का प्रभाव शेष रह जाएगा
सोचती हूँ कि अगर कविताएँ न होती
तो जीवन में प्रेम ख़त्म हो गया होता
जीवन से प्राण निकल गया होता ।