प्राण दे दो / मनीषा शुक्ला
तुम महादेवी, सुभद्रा, तुम हुई हो गीतगन्धा
आज फिर से गीत की नव कोंपलों को प्राण दे दो !
गोद खेले हैं तुम्हारी ये यमक, अनुप्रास सारे
श्वास-गति को छंद कर दो, हैं तुम्हें अभ्यास सारे
तुम जगी, तो जाग जाएंगी अभागी सर्जनाएँ
लौट जाएंगी अयोध्या, काटकर वनवास सारे
अब सयानी हो गई है, गीत-कुल की हर कुमारी
लक्ष्य के सन्धान तत्पर अर्जुनों को बाण दे दो!
जग कभी ना कर सकेगा, तुम स्वयं का मान कर लो
आंख में काजल नहीं, तुम आज थोड़ी आन भर लो
अग्नि कर लो चीर को तुम, छू नहीं पाए दुशासन
लेखनी आँचल बनाओ, शीश पर अभिमान धर लो
भावना के राम को जिसकी प्रतीक्षा है युगों से
तुम अहिल्या बन, समय को बस वही पाषाण दे दो!
मौन का अभिप्राय दुर्बलता न समझा जाए, बोलो!
ये पुरानी रीत है, जब कष्ट हो पलकें भिगो लो
न्याय कर दो आज अपनी भावनाओं का स्वयं ही
व्यंजना आशा लगाकर देखती है, होंठ खोलो
है अकथ वाल्मीकि से सीता सदा रामायणों की
कंठ से छूकर, स्वयं ही पीर को निर्वाण दे दो!