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प्रातः / ओमप्रकाश सारस्वत
Kavita Kosh से
प्रात हुई
घाटी की
कुण्डलिनी जागी
माथे पे दमका
सहस्त्रार
वसुधा ने महसूसा
शक्तिपात
संज्ञा ने पाया
आकार
चिड़ियों ने
नाचा
कुचिपुड़ि
दस्तक दे
आंगन के द्वार
दूब ने
हल्की की
आँखें
धूप ने
चूमा जब बार-बार
पेड़ों ने
तान दिए
साए
पत्तों ने छेड़ दी
गिटार
जगती ने
किया फिर हाथ जोड़
ज्योति के
मूल को नमस्कार