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प्रायश्चित / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
मेरे अजाने पुरुष
कब तुम अपनी चरण-धूलि से
धूसरित करोगे
मेरी जोहती बाट को
जो क्षितिज की चौखट पर बैठकर
युगों से जोह रही हूं
मेरे अजाने पुरुष
रश्मिरथी की तरह
सात घोड़ों की बागडोर थामे
कब तुम आओगे
और कब आकाश के इस पार
मेरा छोटा-सा संसार सजाओगे
जिसमें काले पत्थर और धुआं के सिवा
आज कुछ भी नहीं है
आज तो मुझे ज़रूरत है
सिर्फ़ एक लाल रंग की
मेरे अजाने पुरुष
कब तुम्हारा सूर्य
मेरे भाल पर चमकेगा
कब तुम
सबके सामने मेरी चुनरी में
आकाश के तारे टांकोगे
और कब तुम
अपनी किरणों की जयमाल
मेरे गले में डालोगे
क्योंकि तब मैं करूंगी
द्वापर युग का एक प्रायश्चित
काल की कोख से जनूंगी
एक और कर्ण
जो इस बार साथ देगा
धर्मयुद्ध का।