प्रेम: एक परिभाषा / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’
हमर प्रेम की थिक
से हमरा धरि बूझल अछि,
हम मात्र हमही छी,
अहं केर छूति नहि,
प्रेमकेँ विसंगति हम
बूझल नहि जीवनमे
संगति थिक प्रेम
जे समाज बीच रखने अछि
हमर ‘हम’
यथासमय,रहिकय समाज बीच
पुत्र, पिता, मित्र, भाय, बन्धु, पति,
शिक्षक ओ छात्र आदि आदि बहुत,
सभ किछु बनैत अछि
ई सभ किछु बनबामे
बहुत किछुक काज छैक,
अतः ताहि बहुत किछुक
करितो जोगाड़ अछि।
पिताकेर प्रेम-
सौंस नारिकेर पुत्र हेतु,
ऊपरसँ सक्कत
ओ रुच्छ सन लगैत अछि,
भीतरमे-
सजल, तरल,
दुग्धोज्ज्वल कोमल फल
खयले पर बुझय जाय
व्यर्थ स्वाद कहने की?
पुत्रकेर प्रेम-
पिताकेर हृदय-घृतक हेतु
रौद थिक,
देखलासँ लगले पिघलि जाइछ।
शिक्षककेर प्रेम-
शुद्ध भुल्ली कुसियार बुझू,
देखबामे ठेङा सन
देखि चौंकि उठी,
मुदा जँ जँ चिबवैत जाउ
मधुरइ बुझैत जाउ।
मित्रकेर प्रेम-
पानि चिन्नीकेर रूप स्वतः,
आपसमे मिललासँ
भिन्नता समाप्त तुरत।
भाय-बन्धुकेर प्रेम-
डोरी ओर डोल बनल
तृषित जे समाज तकर
तृषा मेटा दैत अछि।
जीवन थिक साइकिल,
पति-पत्नीकेर प्रेम-
क्रैंक-चेन बनल
साइकिलकेँ
आगाँ घिचैत अछि।
किन्तु जे समग्र रूप
प्रेमक हम देखल से
दूश मध्य अन्तर्हित
नेनुक समानअछि,
मथला सँ फक्क दऽ कऽ
ऊपर अलगि जाइछ,
लाख यत्न कयलो पर
मिश्रित नहि होइत अछि।