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प्रेम / सुरेन्द्र रघुवंशी
Kavita Kosh से
उसमें इतना आवेग है
कि अपने प्रवाह पथ में
उसने कभी स्वीकार ही नहीं किया कोई अवरोध
वह कभी अपने तट के भीतर
तो कभी तट के बाहर बहा
हार कर रुक नहीं गई धार
उसकी तरलता में कृत्रिमता का नमक नहीं है
वह यथार्थ के ताप से उपजा है
ज़रूरी नहीं कि सभी देख पाएँ उसे
उसे देखने के लिए वैसी ही नज़र चाहिए जैसा वह है
वह आकाश में आवारा बादलों जैसा है
तो धरती पर पगली-सी बहती फिरती नदी जैसा भी है
पेड़ पौधों में फूलों जैसा है
शरीर में आँखों जैसा है
एक अकथनीय सत्य जैसा वह व्याप्त है हवा में
वह आँखों की तरलता में ध्वनित होता है
तो होंठों के फैलाव में विस्तार पाता है
मैंने उसे कई रूपों में देखा है
ठीक-ठीक कहूँ तो
वह बिल्कुल तुम्हारे जैसा है