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प्रेम की प्रकृति / गीता शर्मा बित्थारिया

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क्या प्रेम
अधिकार
समर्पण
सम्मान
मित्रता
भक्ति
संयोग
वियोग
जैसे शब्दों से
होता है
परिभाषित

नहीं
वरन
कैसे धारते है
उसी से तय होती है
आपके प्रेम की प्रकृति

पगड़ी
गुलुबंद
अँगरखा
शॉल
पटका
अंगवस्त्रम
बालों में बंधा रीबिन
या गहरे रंग की
कोई रेशमी साड़ी
जिसे लपेट लेते है
स्वम् के इर्द गिर्द

ये आपकी
पोशाक पे जड़ा
कोई कीमती रत्न
या फिर टांक लिया गया
कोई सुगन्धित पुष्प भी हो सकता है
प्रेम जैसे थाम ली हाथों ने कोई वंशी
या फिर देह से महकता कोई इत्र

तय आप करते हैं
और रोक लेते हैं
अपने प्रेम को
किसी परिभाषा की
संकरी गली में जाने से
और
फिर प्रेम का बिछौना
प्रेम का दुशालाओढ़कर
बन जाना चाहते हैं
क्षितिज निहारते
दो जोड़ी
नयन