प्रेम के असम्भव गल्प में-6 / आशुतोष दुबे
प्रेम एक एकांत का द्वार खोलता है जिसमें दूसरा एकांत प्रवेश करता है. दोनों एकांत एक-दूसरे की हिफ़ाज़त करते हैं. लेकिन दोनों के बीच की दीवार घुलती रहती है. तब प्रेम का एक विस्तृत एकांत बनता है.
वह है चाहे वे न हों.
उसमें सब कुछ मधुर ही नहीं, बल्कि कोई कटु-तिक्त बीज भी है उसके भीतर जिससे कतराना मुश्किल है.
वह कुनकुनी धूप है, ठिठुरन के विरुद्ध. लेकिन उसमें जो आँच है, उसकी ताब लाना भी मुश्किल.
वह कामना का असमाप्त विन्यास है.
तृप्ति एक बार फिर
कामना को जगह देती है
कामना एक बार फिर
तृप्ति के जल में डूबती है
और फिर बाहर निकल आती है
अनाहत
कमल की तरह
उस पर पानी की जो यहाँ-वहाँ बूँदें हैं
वह तृप्ति की स्मृति है
कामना हमेशा इस स्मरण से संतप्त है
स्मरण है. मरण है. राख के ढेर में से फिर साकार होना है. सिलसिला है. सरोवर में मन की छाया को किसी ने जकड़ लिया है. उसे मुक्त कराने के लिए मन वहाँ बार-बार लौटता है. बार-बार की कैद में.