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प्रेम हृदय की बस्तु है / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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प्रेम हृदय की बस्तु है, परम गुह्य अनमोल।
कथनी में आवै नहीं, सकै न को‌ऊ तोल॥-१॥
रसमय, आनँदमय, बिमल, दुरलभ यह उन्माद।
अकथनीय, पै अति मधुर, गूँगेकौ-सौ स्वाद॥-२॥
तीन लोक की संपदा, इंद्रभवन कौ राज!।
प्रेमी तृन-सम लखत तेहि, तजत प्रेम के काज॥-३॥
दुरलभ झाँकी प्रेम की, जिन झाँकी ते धन्य।
उपजत-बिनसत जगत में जड़ पसु सम सब अन्य॥-४॥
धरा-धाम, धन-धान्य, धी-धीरज, धरम-बिबेक।
प्रेम-राज्य सब ही छुटे, रही एक ही टेक॥-५॥
प्रेम सदा बढिबौ करै, ज्यौं ससि-कला सुबेष।
पै पूनौ यामें नहीं, तातें कबहुँ न सेष॥-६॥
एक नेम यह प्रेम कौ, नेम सबै छुटि जाहिं।
पै जो छाँड़ै जानि कै, तहाँ प्रेम कछु नाहिं॥-७॥
प्रेम अवसि पागल करै, हरै सकल कुलकान।
बेद-धरम मेटै सकल, हिय प्रगटै भगवान॥-८॥
जग में चार प्रसिद्ध हैं सेय परम पुरुषार्थ।
पंचम हरि कौ प्रेम है, परम मधुर परमार्थ॥-९॥
राग-सोक, भय-कामना, मान-मोह, मद-क्रएध।
प्रेम-राज्य प्रबिसैं नहीं, अरि आठौं निर्बोध॥-१॥
प्रेमदेव के दरस तैं, सब बंधन कटि जायँ।
ममता-मान सबै नसै, उर अति आनँद छाय॥-११॥

प्रेम के साधन

प्रेम-पंथ अति ही बिकट, देखत भाजैं लोग।
को‌उक बिरले चलि सकैं, जिन त्यागे सब भोग॥-१२॥
भोग-बासना सब तजै, तजै मान-सनमान।
प्रेम-पंथ पर जो चलै, सहै हृदय पर बान॥-१३॥
प्रेम-पंथ सो‌इ चलि सकैं, जिन छाँड़ी सब चाह।
जर्‌यौ करैं बिरहाग्रि में, मुख नहिं निकसै आह॥-१४॥
प्रेम-डगर सो‌ई चलै, अगर-मगर दै छोरि।
बिषय-राग राखै नहीं, सब सौं नातौ तोरि॥-१५॥
संत-वैद्य सेवन करै, करु‌ई औषध खाय।
भोग-रोग राखै नहीं, तबै प्रेम प्रगटाय॥-१६॥
जो तू चाहै प्रेमधन, बिषयन सौं मुख मोरि।
स्रद्धा-तत्परता सहित, चिा भजन में जोरि॥-१७॥
जे प्यासे हरि-प्रेम के, तिन के निरमल भाव।
तन मन धन अरपन करैं, धरैं मुक्ति कौ दाव॥-१८॥
स्वर्ग मोच्छ चाहैं नहीं, चाहैं नंदकिसोर।
सुघड़ सलोनौ साँवरौ, मुरलीधर मन-चोर॥-१९॥
बिद्या बुद्धि बिबेक कौ तजै सबै अभिमान।
सो पावै प्रभु-प्रेम कौं, जेहि सम तुलै न ग्यान॥-२०॥
सप्त स्वर्ग के सुख सकल बिष सम देवै त्याग।
नहीं चाह अपबर्गकी (सो) पावै प्रभु अनुराग॥-२१॥
जो चाहै हरि-प्रेम कौं, राग-भोग दै त्याग।
निसिदिन प्रेमी सँग करै, तब बाढ़ै अनुराग॥-२२॥
प्रेम-पंथ कंटक भर्‌यौ, चालै बिरलौ कोय।
बिंधत-छिदत हुलसै हियौ, यहि मग आवत सोय॥-२३॥
कूदि परै जो सूरमा प्रेमसिंधु के माँहिं।
परम अमोलक रतन हरि पावै संसय नाहिं॥-२४॥
प्रेम-‌अनल कूदै वही, जो मन बे-परवाह।
जियन-मरन भावैं नहीं, नहीं सरग की चाह॥-२५॥
प्रेमानिल के परस तैं, ग्यानानल बढि जाय।
जारै कर्म-समूह सब, हरि-ही-हरि रह जायँ॥-२६॥
हरि-छबि-हबि-‌आहुति हि‌एँ ज्यौं-ज्यौं लागत जात।
प्रेम-‌अनल त्यौं-त्यौं अतिहि अधिकाधिक सुलगात॥-२७॥
प्रेम-‌अनल जेहि जिय जरत, जारत तीनिहुँ ताप।
सुद्ध-स्वर्ण आसन अमल आ‌इ बिराजत आप॥-२८॥

प्रेम के विघ्न

प्रेम अमिय चाहै पियौ, करै बिषय सौं नेह।
बिष यापै, जारै हियौ, करै जर्जरित देह॥-२९॥
मन बिषयन में रमि रह्यौ, करत प्रेम की बात।
सो मिथ्याबादी सदा जग में आवत जात॥-३०॥
भव-बारिधि तरिबौ चहै, गहै बिषयकी नाव।
डूबै सो मँझधार ही, तनिक न लागै दाव॥-३१॥
प्रेम-पंथ पर पग धरै, करै जगत कौ सोच।
तिन कौ मन अति मलिन है, बुद्धि निपट ही पोच॥-३२॥
प्रेम-सिंधु कूदत डरै, करै जगत की याद।
सो डूबै भवसिंधु में, जीवन करि बरबाद॥-३३॥
दंभी, द्रोही, स्वारथी, बादी, मानी-पाँच।
ये खल नाहिन सहि सकैं प्रेम-‌अगिनि की आँच॥-३४॥

प्रेम की स्थिति

कहि न जाय मुख सौं कछू स्याम-प्रेम की बात।
नभ, जल, थल, चर-‌अचर-सब स्याम-हि-स्याम लखात॥-३५॥
ब्रह्मा नहीं, माया नहीं, नहीं जीव, नहिं काल।
अपनीहू सुधि ना रही, रह्यौ एक नँदलाल॥-३६॥
को कासौं केहि बिधि कहा कहै हृदय की बात।
हरि हेरत हिय हरि गयौ, हरि सर्बत्र लखात॥-३७॥
प्रेम-बान बेध्यौ हियौ, घायल भयौ अचेत।
एक राम में रमि गयौ, दुर्‌यौ बिषय कौ खेत॥-३८॥
प्रेम-पयोनिधि परत हीं पबि-सम भयौ सरीर।
काम-कटक भाज्यौ सबै, तजि निज तरकस-तीर॥-३९॥
रँग्यौ सदा जाकौ हियौ, बिमल स्याम-‌अनुराग।
दूजौ रँग कबहुँ न चढ़ै, भयौ सहज बैराग॥-४०॥
मोहन की मधुरी हँसी, बसी हृदय में जाय।
माया-ममता-‌अघ अनल तेहि हिय नाहिं समाय॥-४१॥
जिन कौ हिय नित हँसि रह्यौ, हेरि-हेरि हरिरूप।
कबहूँ ते न पलटि परैं सोकरूप भवकूप॥-४२॥
जिन के दृग हेरत सदा हरि-मूरति चहुँ ओर।
तिन के चित कबहुँ न बसत काम-मोह-मद चोर॥-४३॥
जिन के दृग हरि-रँग रँगे, हिय हरि रहे समाय।
नभ, जल, अवनि, अनिल, अनल-सब में स्याम दिखाय॥-४४॥
जिन कें मन मोहन बस्यौ, ड्डँस्यौ दृगन में आय।
धँस्यौ सकल संसार में, तिन कौं वही दिखाय॥-४५॥
जिन नैनन में परि ग‌ई हरि निरखन की बान।
ते नित स्याम निहारहीं, नाहिं सुहावत आन॥-४६॥
जिन के जिय में रमि रह्यौ मोहन चतुर सुजान।
तिन के नयन बिलोकते सब जग श्रीभगवान॥-४७॥
चित नित चिंतन में रयौ, नैन रमे छबि माँहि।
बानी गुन-बरनन रमी, राम सदा तेहि ठाँहि॥-४८॥
जे मतवारे है रहैं, प्रेम-सुरा करि पान।
तिन कौं कछू न करि सकैं, बेद, पुरान, कुरान॥-४९॥
अमर भ‌ए जे नर सुघर, प्रेम-सुधा करि पान।
तिन कौं जारि सकै नहीं काम-‌अनल बलवान॥-५०॥
ही-तल सीतल ह्वै चुक्यौ, प्रेम-बारि सौं पूरि।
जग की सब ज्वाला रहै तासौं अति ही दूरि॥-५१॥
तेजपुंज जेहि हिय उग्यौ प्रबल प्रभाकर प्रेम।
मोह-निसा, अघ-तम सकल नासे तजि निज छेम॥-५२॥
प्रेम-दिवाकर उगत हीं छायौ पूर्न प्रकास।
बिषय-नखत दीखत नहीं, भयौ मोह-तम-नास॥-५३॥
प्रेम-सुधा सिंचन कियौ, अमर भयौ बिग्यान।
सकल बिस्व हरि है गयौ, मिट्यौ ग्यान-‌अजान॥-५४॥
प्रेम-‌अनल लागत जर्‌यौ जग को जाहिर रूप।
भ‌ए तिरोहित रूप त्रै, रह्यौ एक हरि-रूप॥-५५॥
भक्ति-मुक्ति दो‌ऊ तजीं, तजे लोक-परलोक।
बूड्यौ प्रेम-पयोधि में, नहीं हरष नहिं सोक॥-५६॥
जिन चा?यौ हरि-रस मधुर, अमर भ‌ए तेहि पीय।
सब रस नीरस ह्वै ग‌ए, जिनके जीहा जीय॥-५७॥
जिन के हिय हरि नै लियौ प्रेमरूप अवतार।
तिन के पातक जरि मरे, भ‌ए करम सब छार॥-५८॥
हरि-रस पीयत हीं छक्यौ, झूमत-गिरत अचेत।
उठत-चलत, रोवत-हँसत, नाचत भूलि निकेत॥-५९॥
डूयौ प्रेम-पयोधि में, भयौ प्रेम कौ रूप।
रसाद्वैत याकौं कहत, रहत न भिन्न सरूप॥-६०॥
प्रेम हरी, हरि प्रेम है, प्रेमी, प्रियतम आप।
जहाँ प्रेम कौ बास, तहँ रहै न जग कौ ताप॥-६१॥
जे माते हरि-प्रेम के तिन कें हिय भगवान।
पाप-ताप कछु ना रहै, नसै भरम की खान॥-६२॥
मोहन की मुसुकान मधु जिन निरखी निज नैन।
ते प्रेमी बड़भाग जन छके रहैं दिन-रैन॥-६३॥
प्रेम-रसायन पियत हीं बाढ़ी सक्ति अपार।
काम, क्रएध, मद, लोभ रिपु भागे सीमा पार॥-६४॥
प्रेम-‌उदधि में परत हीं, ज्यौं पहुँच्यौ तल सेष।
उछरत ड्डेरि न कबहुँ सो जनम-मरन के देस॥-६५॥
जेहि मन मनमोहन बस्यौ, सब अँग रह्यौ समाय।
तेहि मन ठौर न और कौं, आ‌इ देखि फिर जाय॥-६६॥
स्याम रह्यौ मन-नैन में सुंदरता की खान।
सब में सो दीखत तिन्हैं ब्रज-जुबतिन कौ प्रान॥-६७॥
सब जग मोह्यौ मोहनें, सब कौं रह्यौ नचाय।
सो मोह्यौ, ह्वै प्रेमबस, व्रज में नाच्यौ आय॥-६८॥
प्रेमांजन आँजत दृगन बाढ़ी जोति अपार।
तम-भ्रम नास्यौ, स्याम छबि छा‌ई सब संसार॥-६९॥
प्रेम प्रगट जब होत है, रहन न पावत आन।
‘तू’, ‘तू’ हीं रहि जाय फिर, ‘मैं’ कौ मिटै निसान॥-७०॥
प्रेम-धाम प्रीतम बसै, प्रीतम में रह प्रेम।
दोनों एक सरूप हैं, तहाँ न को‌ऊ नेम॥-७१॥

जान और प्रेम

ग्यान-प्रेम दो‌उ पूज्य अति, दो‌उ बिमल बरनीय।
पै प्रेमी के मन सदा प्रेम-रूप कमनीय॥-७२॥
ग्यानी बोध-सरूप ह्वै, होहिं ब्रह्मामें लीन।
निरखत पै लीला मधुर प्रेमी प्रेम-प्रबीन॥-७३॥
ग्यानी ढिग गंभीर हरि सच्चित-ब्रह्माानंद।
प्रेमी सँग खेलत सदा चंचल प्रेमानंद॥-७४॥
ग्यानी ब्रह्माानंद सौं रहै सदा भरपूर।
पै प्रेमी निरखै सुखद, दुरलभ हरि कौ नूर॥-७५॥
प्रेमी सँग कबहुँ न तजत, रहत निरंतर पास।
हँसत-हँसावत आप हरि, करत अनेक बिलास॥-७६॥
ब्रह्मा ग्यान बिग्यान कौ, अमृत कौ आधार।
भेंट्यौ हृदय लगाय हरि, स्रवै नैन जलधार॥-७७॥
प्रेमी-भाग्य सराहि मुनि ग्यानी बिमल बिबेक।
चहैं सुदुरलभ प्रेम-पद, तजि निज पद की टेक॥-७८॥

प्रेमी का स्वरूप

प्रेमी जन मुक्ति न लहै, प्रेमरूप हरि त्याग।
स्याम बदन देखै सदा, परम सुखी बड़भाग॥-७९॥
सनमुख मारै मोरचा, सिर पर बरछी लेय।
प्रेमी पन छाँड़ै नहीं, हरि हित जीवन देय॥-८०॥
जियै तौ हरि हित ही जियै, मरै तौ हरि हित लागि।
दह्यौ करै बिरहागि में, सरबस देवै त्यागि॥-८१॥
प्रेमी पहिचानत नहीं एक स्याम बिनु और।
सोवत-जागत जगत में स्याम सदा सब ठौर॥-८२॥
लोक-बेद सब ही तजै, भजै रैन-दिन स्याम।
सीस समरपै मुदित मन, एक प्रेम के नाम॥-८३॥
तनु काटै, खंडित करै, खुसी खवावै काग।
जो रुचि देखै पीय की, कौन बड़ी यह त्याग॥-८४॥
प्रेम कहै, प्रेमहि सुनै, प्रेम निहारै नैन।
प्रेम चखै, प्रेमहि भखै, प्रेम लखै दिन-रैन॥-८५॥
बड़भागी जिन के हिये, बिंध्यौ प्रेम कौ बान।
तिन कौं तनिक न सुधि रही, बिसरि ग‌ए सब ग्यान॥-८६॥
तन-मन-धन-सब में तुमहि, सबै तुहारे काज।
भावैं ज्यौं बरतौ इनै, प्रेम-सिंधु ब्रजराज॥-८७॥
भोग-मोच्छ सौं रति नहीं, सब सौं सदा बिराग।
पै प्रीतम-छबि सौं सतत बढ़त जात अनुराग॥-८८॥
ब्रह्मालोक परजंत के सबै भोग निस्सार।
जानत, पै प्रिय-प्रीति हित करत सदा सिंगार॥-८९॥
जो रुचि देखै राम की, बिलग हो‌इ ततकाल।
नरक परै, दुख सहै, पै सुखी रहै सब काल॥-९०॥
पच्यौ करै नरकाग्रि, पै पल-पल बाढ़ै प्रेम।
प्रीतम के सुख सौं सुखी, यहै प्रेम कौ नेम॥-९१॥
प्रेम-‌अनल जे जरि मरे, अपनौ आपौ खोय।
ते ही जीये जगत में, शेष रहे मृत होय॥-९२॥
जिहिं नित चित चातक कियौ, नेम प्रेम कौ लीन्हि।
निरखे नित घनस्याम छबि, अन्य सबै तज दीन्हि॥-९३॥
बिपति सहै, प्यासौ मरै, जरै बिरह की आग।
दूसरि दिसि चितवै नहीं, सो प्रेमी बड़भाग॥-९४॥
स्याम-सुधाकर में लग्यौ जाकौ चिा-चकोर।
सो प्रेमी दृढ़निश्चयी, तकै न दूसरि ओर॥-९५॥
मोह मिट्यौ संसार कौ, बिनस्यौ सब अग्यान।
पै प्रिय-ममता बढ़त नित, यहै प्रेम-पहिचान॥-९६॥
‘अहं’ देह कौ सब दह्यौ, रह्यौ न बिषय-ममत्व।
पै प्रिय-सुख-लगि तजत नहिं बपु, यह प्रेम ममत्व॥-९७॥
दो‌उ दृढ़ आलिंगन करत, करत सदा सुख-भोग।
एकरूप नित ह्वै रहैं, तदपि न अँग-संयोग॥-९८॥
सदा रहत संजोग ध्रुव, तदपि बियोग लखात।
जोग, बियोग-सरूप धरि, नित्य जरावत गात॥-९९॥
पै राखत यह जरनि जिय, प्रिय सम हिय सौं लाय।
नहिं कुछ यहि सम सांतिकर, सीतल, सुखद सुभाय॥-१००॥