भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फरक थारै अर म्हारै बिचाळै / वासु आचार्य
Kavita Kosh से
सुख अर दुख
आप आपरो हुवै
म्हारो दुख
तनै अकैकारो लाग सकै
अर म्हारै सुख माथै
तूं दांत काढ सकै
तनै जंगळ में
खेजड़ी माथै बैठी
एकल एकली चिड़कली
कोई खास बात नीं लखावै
पण म्हारै काळजै
गैरी उदासी भर जावै
तिरण लागै-
म्हारी आंख्यां में
कच्चा टापरा
उदास झूंपड़ियां
जठै लगोलग
नीं तो लालटेन सूं
कोई धुंवो उठै
अर नीं ही ससोयां सूं
ईं में म्हारो
कीं दोस नीं है
म्हारा भायला
कै थनै खुलै आभै में
झपटता केई बाज
अर बचणां चावता
केई कबूतरां रै
जीवण अर मरण रै
खूनी खेल में
बाज रो झपटणो
घणो सुहावै
अर म्हैं डरूफरू हुयै
कबूतर री पीड़ा सूं
सूकण लागूं मांय रो मांय
म्हैं जठै खड़ियो हूं
बठै री जमीन रो
आपरो न्यारो सोच है
अर न्यारी निजर
म्हैं कैयो नीं
सुख अर दुख
आप आपरो हुवै।