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फ़ीनिक्स / ओएनवी कुरुप / एन० ई० विश्वनाथ अय्यर

चिता से फिर से जी उठूँगा
पँख फूलों की तरह खोलता उठूँगा ।

मैं एक दिव्याग्नि का कण हो
किसी मरूभु के गर्भ में प्रविष्ठ हुआ ।
एक मूँगे के बीज को दो पत्तियों की तरह
स्वर्णपँख डोलता मैं ऊपर उठता गया
ज्वालामुख खोल जगे हिरण्यमय नाल की तरह
अग्नि से अँकुरित हुआ ।

निदाघपुरुष एक व्याघ्र की तरह
तीर मारता, रक्त का प्यासा बन
जिस धरती पर चल रहा है
उसमें मैं छाया व प्रकाश फैलाता उड़ता हूँ ।

क्या जगह-जगह हरे बीज उगे ?
रेत के पाट में क्या फूल खिले ?
क्या मरुस्थली सूर्य-महाराज की तरफ़
उठता स्वर्णमुख राग बन ज्वलित हो उठी ?

मैं उन दलों से उठता उन्मत्त मधु शलभ होकर जब उड़ूँ
गाता उड़ूँ,
दोनों पँखों से अपारता को नापने की
कठोर साधना जारी रखूँ तब
मैं झुलस जाऊँगा ।
पंखों की सारी बत्तियाँ जलेंगी — मृत्यु के हाथ में
अनन्तता की आरती करता
दीपदान बनूँगा ।

मृत पक्षी के चिताकण लेकर आँसू टपकाते, हे काल !
मैं चिता से फिर से जी उठूँगा
अपने पँख फूलों की तरह खोलता उठूँगा ।

मूल मलयाली से अनुवाद : एन० ई० विश्वनाथ अय्यर