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फागुन दै छै गारी / कुमार संभव
Kavita Kosh से
सखी हे, फागुन दै छै गारी
बिछुआ औंगरी में घुर-घुर काटै
डाड़ा डड़कस नागे रं लपटै,
नथिया, हार, टीका सब बेरथ
सभ्भे भूषण भेलोॅ छै भारी,
सखी हे, फागुन दै छै गारी।
ननदोसी बोली फागुन उकासावै
उकठोॅ बोली सें ज़िया जरावै,
सिसकारी मारी-मारी केॅ हमरा
रगदै छै आरी-आरी
सखी हे, फागुन दै छै गारी।
मंजरैलोॅ छै देखोॅ बाग-बगीचा
खेलै छैलियै जहाँ दोल-दलीचा,
हाँसै छेलै हमरोॅ पातर पियवा
दै दै केॅ सिसकारी
सखी हे, फागुन दै छै गारी।
रात-रात भरि कानै-कलपै
पछिया-पुरबा दूनोॅ हलफै,
परेदशी नै दुख समझै हमरोॅ
कानै छै दुखियारी,
सखी हे, फागुन दै छै गारी।