भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
फिर एक बार / उज्ज्वल भट्टाचार्य
Kavita Kosh से
तुमने कहा –
मुझे लाल रँग पसन्द है
हर साए में
और मुझे धुर बीते दिनों का वह रास्ता याद आ गया
जब एक लड़का एक लड़की के साथ
ज़मीन पर गिरे गुलमोहर की पँखुड़ियों पर चला करता था
और आसमान में आग लगी होती थी ।
तुम वो लड़की नहीं
लेकिन वैसी ही हो
मैं तो वैसा नहीं रह गया
लेकिन गुलमोहर के रँग में
आज भी आसमान में आग लगती है ।
सुनो,
इससे पहले कि तुम अपने रास्ते पर आगे बढ़ जाओ,
आओ,
एकबार हम गुलमोहर की झरी पँखुड़ियों को
पैरों तले रौन्दते हुए
चन्द क़दम साथ चलें
आसमान में आग लगी होगी
लेकिन हम उसे नहीं देखेंगे ।
दिल में बेवजह ख़ुशी होगी
लेकिन वहाँ भी झाँकने की कोई ज़रूरत नहीं ।