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फिर बाग बहारें देखें / प्रेमलता त्रिपाठी
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बिखरी है जन सत्ता अपनी,कौन इन्हें उकसाता है ।
भरत भूमि की गरिमा पर जो,नित आघात लगाता है ।
फूलों से महके जो रिश्ते,धुंध गुबार भरी बस्ती,
बाग हुए बदनाम उसे अब,बागी कहाँ सजाता है ।
नित्य नयें उन्माद उछलते,सत्ता के गलियारों में,
सत्य न बोले कुविचारी ये,उनको वही सुहाता है ।
राहजनी करती है चिंतित,धुंआधार मनमानी हो,
बढी़ शृँखला अपराधों की, रहा न कोई त्राता है ।
शुद्ध करें अंतस अपना हम,फिर बाग बहारें देखें,
प्रेम सहज परछाई अपनी,मन मानव सरसाता है ।