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फूल - 3 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
Kavita Kosh से
फूल तुम हो सुहावने सरस।
नहीं प्यारे लगते हो किसे।
लुभा लेते हो किसको नहीं।
हो न किस की आँखों में बसे।1।
तुम्हारी चाह नहीं है कहाँ।
चढ़े हो किस के सिर पर नहीं।
न भोले भाले तुम से मिले।
न तुम से सुन्दर पाये कहीं।2।
भला करते ही देखे गये।
जब मिले तब हँसते ही मिले।
रंग लाते पत्तों में रहे।
दिखाये काँटों में भी खिले।3।
कभी तुम सिर का सेहरा बने।
कभी तुम बने गले का हार।
किसी कोमल कर कमलों के।
कभी तुम बने प्रेम उपहार।4।
मोल अनमोल मुकुट के हो।
तुम्हीं हो सब ताजों के ताज।
बहुत तुम से है मेरा प्यार।
मान लो इतनी बातें आज।5।
धूल से ही तुम हो जनमे।
और मैं हूँ पाँवों की धूल।
बरस जाओ इन सुजनों पर।
झड़ो तुम मेरे मुँह से फूल।6।