फेरु अमरेथू रहता है
वह कहार है
काकवर्ण है
सृष्टि वृक्ष का
एक पर्ण है
मन का मौजी
और निरंकुश
राग रंग में ही रहता है
उसकी सारी आकाँक्षाएँ - अभिलाषाएँ
बहिर्मुखी हैं
इसलिए तो
कुछ दिन बीते
अपनी ही ठकुराइन को ले
वह कलकत्ते चला गया था
जब से लौटा है
उदास ही अब रहता है ।
ठकुराइन तो बरस बिताकर
वापस आई
कहा उन्होंने मैंने काशीवास किया है
काशी बड़ी भली नगरी है
वहाँ पवित्र लोग रहते हैं
फेरू भी सुनता रहता है ।