भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बँटी-बँटी हवाएं / राजीव रंजन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हवाओं के भी कई रंग
होने लगे हैं आज।
अपनी-अपनी गंध में ही
खोने लगे हैं आज।
हवाओं में भी रंग, गंध की
सरहद बना दी है हमने आज।
अपनी-अपनी सरहदों में ही
रोकना चाहते हैं हवाओं
को सभी आज।
अपनी-अपनी गंधों में ही
बाँधना चाहते हैं हवाओं
को सभी आज।
पथरीली गंध में लिपटी
बिशैली-जहरीली होती
हवाएँ आज।
घुट रहा दम हवाओं का
अपनों के हाथों ही बँटती
कटती और इन सरहदों पर
रोज घायल होती हवाएँ आज।
टपके खून के लाल रंग और
शहादत की गंध को भी
अपने-अपने रंगो की सरहदों
में रंगने लगे हैं आज।
लोकतंत्र के कठोर पत्थर पर
सर पटकती, रोती, सिसकती
बँटी-बँटी हवाएँ आज।
काश! शहादत की इस पावन
गंध और बलिदानी लाल रंग
की सरहदों में अपने को
रोक पाती ये हवाएँ आज।