वे कभी घर नहीं बनाते,
वे रिश्तें भी नहीं बनाते।
वे हमेशा इस पार से उसपार जाना चाहते हैं,
लेकिन वे पुल भी तो नहीं बनाते।
जहाँ शाम हुई वहीँ बसेरा है उनका,
जब आँख खुली सवेरा है उनका,
उन्हें कभी नहीं लुभाता उगता डूबता-सूरज
उन्हें नहीं भाता लुकता-छिपता चाँद
सितारे जुगनू रजनीगंधा से उनका कोई राब्ता नहीं
आह, आसूं, अहसास यादों से भी कोई वास्ता नहीं।
वे कभी पौधे नहीं लगाते, वे प्रेम नहीं रोपते
वे जानते हैं, पौधे और प्रेम परवाह और समय मांगते हैं।
वे छोड़ आये अनगिनत गाँव, बस्ती नगर और डगर
लेकिन उनकी देह से नहीं जा सकी पिछली रुत की महक
मिट्टी की गंध, और पीठ पे चिपकी आवाजे।
कहाँ-कहाँ किस नगर या किस डगर पे रुके
कोई हिसाब नहीं...
किसका कितना कर्ज है उनपर,
इसकी कोई बही, खाता
कोई किताब नहीं।
उनका कहीं कोई ठौर नहीं,
उनके जीवन में कोई और नहीं
लेकिन पिछली डगर की मिट्टी
बरबस लिपट के उनके पैरों से
करती है अक्सर ये सवाल
सुनो, क्यों जलती आग "हरे वन"में छोड़ आये?
क्यों कोई याद किसी "भरे मन "में छोड़ आये?
कभी मुड़कर देखा है ?
उस जलती आग से जाने कितने
“हरे वन” स्याह कोयले में बदल गए।
उस चुभती याद से जाने कितने
“भरे मन” बंजर होकर मिट गये।
याद रहे, बंजारे
जितना लिया उस मिट्टी से, घाट से, बाट और हाट से
सबका मोल चुकाना होता है।
जितना लौटा सके हम बस उतना ही लेना होता है।
सुनो... धरती की धड़कन क्या बोले
इस जनम में तो तू किसी इक का हो ले
जिनके मन में फूल नहीं खिलते
वो मन बंजर कहलाते है।
जो नहीं खिलाते कोई फूल वो बंजारे बन जाते हैं।
ठहर दो पल, रुक तो सही
किसी का तो तू बन जा रे...
वरना सदियों तक ये धरती तुझे
पुकारेगी बंजारे...