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बचपन - 8 / हरबिन्दर सिंह गिल

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मैनें सोचा
क्यों न
अपने बीते बचपन से हटकर
आज के वातावरण में पलते बचपन को
रेखांकित करने की कोशिश करूँ
और महसूस कर सकंू
कि समाज में बहती हवाओं का
वातावरण पर बहुत प्रभाव होता है।

वातावरण सिर्फ जीवित रहने के लिये
एक साधन मात्र नहीं हैं।
उन हवाओं में
संस्कार का भी मिलन होता है।
संस्कार पीढ़ी की सोच का
संस्कार कर्मों की महता का
संस्कार पूर्वजों की करनी का
संस्कार अपने ही लेन-देन का।
फिर क्यों न संस्कारों की इन रेखाओं से
जो नित प्रतिदिन बदलती जा रही है
आज के बचपन को दृष्टांत करूँ।

जब कोशिश की
एक अद्भूत बालक सामने आया
और मेरे प्रश्न का उत्तर दे दिया।
कि मैं जिस वातावरण में पल रहा हूँ
उससे मैं परिचित भी नहीं हूँ।
फिर भी न जाने क्यों मेरे मस्तिष्क में
उसकी हवाएँ प्रवेश कर जाती है
और आने वाले समाज की
धुंधली तस्वीर उभर उठती है
ठांय-ठांय-ठांय का शोर और
आज के आंतकवाद के वातावरण में पलता बचपन।

इसलिए मानवता का कल
आज के पलते बचपन पर निर्भर करेगा
वह उज्जवल होगा या मैला
यह वातावरण पर निर्भर करेगा
कि समाज में बहती हवाओं का रूख क्या है।