बचा लो ‘पानी’ अपना / बीना रानी गुप्ता
जल धारा में खड़े ऋषि ने देखा-
एक तीर- लगा क्रौंची को-
सुना क्रौंच का विलाप- करूण चीत्कार-
ऋषि- वेदना विगलित
छन्द फूटा अनायास
निर्झरिणी सी वाणी-
कविता लगी रचने
जन्मी रामायण- दृग जल से
प्रेम दीवानी मीरा-
पी गई विष का प्याला-
श्याम रस में लीन- मगन- विभोर
बरसी प्रभु कृपा वारि
शर्म से हो गया- पानी-पानी
रामखड़े गंगा-तट पर
मांगते नाव-केवट से
चरण पखार- भाग्य निखार
केवट- ले चला- चढ़ा नाव।
धन्य-धन्य भाग
पार-भव धार
भक्ति का उदक- महिमा अपार।
भेंटा सुदामा की-निरखी दीन दशा
वाणी मौन-नैन झरने लगे
केशव चरन धोने लगे
करूणा से भर गगन रोया-
ओस बिन्दु झरने लगे।
सागर की गोद से निकली- बदली
आसमान में छाई- उमड़ घुमड़कर
इठला के बोली-
रिमझिम-रिमझिम बरसने आई।
आनन्दातिरेक- अश्रु छलके
वेदना मथे- तो नैन निर्झर,
स्वेद बहा- सृष्टि सजग,
जल है तो जीवन है-
संगीत है, सृजन है।
हिय-सरोवर में प्रेम कमल खिला लो
रचो नया इतिहास-
करूणा की अविरल धारा से-
नेत्र सजल बना लो
महाचिति का वरदान- यह जल
बूँद-बूँद बचा लो,
जल-मूल जीवन का, जग का;
बचा लो ‘पानी’ अपना
पानी उतर गया तो
क्या बचा?