तुम आज रात डरे हुए हो :
चोर बाहर हैं
पत्तियों में छिपे
खिड़की में झाँकते ।
शीशे से सोना फैलता है
परछाईं में ।
और चोर
पत्तियों में हैं,
एक भीड़, एक अनन्तता,
दूसरी ओर के
नम निभृत स्थान में ।
तुम आज रात डरे हुए हो :
चोर बाहर हैं
पत्तियों में छिपे
खिड़की में झाँकते ।
शीशे से सोना फैलता है
परछाईं में ।
और चोर
पत्तियों में हैं,
एक भीड़, एक अनन्तता,
दूसरी ओर के
नम निभृत स्थान में ।