बच्चे / देवमणि पांडेय
बच्चों  से बहुत दूर हैं
मिठाई, बिस्किट और खिलौने 
पर  कभी-कभी वे 
ज़िद  पर उतर आते हैं
और  खाते हैं 
झुँझलाए हुए हाथों की मार 
गली में दूर तक सुनाई देती है
एक  माँ की बेबस बड़बड़ाहट 
हर  सुबह
आँख मलते हुए बच्चे 
लग  जाते हैं
सार्वजनिक शौचालय की क़तारों में
पेट में उठती है मरोड़ 
वे  बार-बार संभालते है निक्कर
हर  चेहरे पर लिखी हुई है हड़बड़ाहट 
और  आँखों में 
आठ  सैंतीस की लोकल ट्रेन 
क़तार  अभी भी लम्बी है 
बच्चों के चेहरों पर 
उतर आया है टीचर का आतंक 
शाम को बच्चे लौटते हैं घर 
उनके  झोलों में 
होती  हैं ढेर सारी कहानियाँ 
ढेर सारी शिकायतें 
बच्चे परेशान हैं कि किसे सुनाएँ 
टीचर  की डाँट 
साथियों के झगडे 
और  सहेजी गई कहानियाँ
नींद  आहिस्ता से उन्हें 
अपनी  गिरफ़्त में ले लेती है
सपनों में वे सुनते है 
पिता  के पैरों की आहट
महसूसते हैं माँ की 
हथेलियां  की गरमाहट
और  नींद में कुनमुनाते हैं
बच्चों  की किताबों में दर्ज है 
शहर की ढेर सारी जगहें
वे  जाना चाहते हैं 
फुले  मार्केट और इंडिया गेट 
हैगिंग  गार्डन और जुहू चौपाटी  
वे  खोजना चाहते हैं उस सच को 
जो  शहर और उनकी बस्ती के बीच 
दीवार की तरह खड़ा है
बच्चे 
सच को देखने के लिए 
बहुत  जल्दी बड़े हो जाना चाहते  हैं
 
	
	

