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बटुआ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
वक़्त की चिकनी सतह पर
उम्र की बहती हुई नाव
आज किनारे से आ लगी है
एक वादा है मंज़िलों से
कि हर बार छू कर गुज़रेगी
मगर आख़िरी पड़ाव पर भी
रूह की रफ़्तार कम नहीं होगी
क्योंकि रास्ता गाँव से जाता है
वही सुनहरी धूल भरी पगडंडी
आँखों में खिलता हुआ गेन्दा
साँसों में उतरता हुआ महुआ
बाँस के पत्तों से छनती चाँदनी
जिसे ओक में भर कर समेटा है
कभी पहन भी लिया धूप की तरह
कसम है उस पीले-गीले चाँद की
जो हर बचपन का 'बटुआ' है
जिसमें महफूज़ है एक लम्हा
एक आँसू, एक याद, एक ख़्वाब
और बच्चों की तुतलाती एक कूक
जिसकी महक अब तक मौजूद है