बड़े भाई साहब की पाटी / मुसाफ़िर बैठा
लिखने की इक काठ की पाटी 
रखी है अब भी 
गांव पर मेरे पुश्तैनी घर में 
अबके नोटबुक के जमाने से 
पहले स्लेट के समय से भी 
पहले चलन में आया था यह 
बड़े भइया ने घर स्कूल दोनों जगह 
इस कालिख पुती कठपाटी पर 
किया था लिखने पढ़ने का गुरु अभ्यास 
क ख ग सीखने से दसवीं कक्षा पर्यंत 
सन् उन्नीस सौ पचपन में 
बनी थी यह पाटी 
ऐसा बताते हैं 
नौकरी से रिटायर होने की दहलीज पर 
पहुंचे भैया और जीवन के अंत की 
दहलीज पर पहुंचती पचासी वर्षीया मां 
जबकि जस की तस है अभी भी 
उस पाटी की काया 
पर उस साबुत काया का भी 
अब नहीं रहा कोई पूछनहार 
पाटी की अक्षत काया 
और मां की क्षीण काया
दोनों की कार्यऊर्वरता की 
हतगति हो गयी है मानो एक जैसी 
बड़े भाईसाहब की यह पाटी 
बन गयी है एक ऐसी थाती 
जो डराती भी है जगाती भी 
कि एक अदना सी वस्तु भी 
बड़ा सिरज सकती है 
जैसे कि भाईसाहब का पढ़ना लिखना 
घर के पहले व्यक्ति और पीढ़ी का 
अक्षरसंपन्न होना था 
इसी पाटी के आधार तले
कि इस मानव काया पर गुमान करना भी 
कोई अच्छी बात नहीं 
समय का चक्र पाटी जैसी 
अक्षत काया को भी 
अनुपयोगी बना सकता है साफ
जो भी हो
मैं बचाए रखना चाहता हूं 
अपनी जिन्दगी भर के लिए 
बड़े भाई साहब की यह पाटी
बतौर एक संस्कारक थाती ।
2008
	
	