भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बढ़ता चल / सुरंगमा यादव
Kavita Kosh से
अँधेरों से हम नहीं डरने वाले
अँधेरों में हम तो करेंगे उजाले
चलते रहेंगे यूँ हीं मतवाले
पाँव में बेशक पड़े अपने छाले
काँटों से हमने काँटे निकाले
क्या-क्या सुनाएँ ढंग अपने निराले
अकेले रहे हम तो खुद को सँभाले
सुख में चले संग में हाथ डाले
मिला न कोई जो दुःख में निभाले
धरा,चाँद-सूरज चल रहे हैं अकेले
मन तू भी चला चल
छोड़ सारे झमेले।