धुँधली है साँझ किन्तु अतिशय मोहमयी,
बदली है छायी, कहीं तारा नहीं दीखता।
खिन्न हूँ कि मेरी नैन-सरसी से झाँकता-सा
प्रतिबिम्ब, प्रेयस! तुम्हारा नहीं दीखता।
माँगने को भूल कर बोध ही में डूब जाना
भिक्षुक स्वभाव क्यों हमारा नहीं सीखता?
शिलङ्, 28 फरवरी, 1944