भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बनूँ नवाब / बालकृष्ण गर्ग
Kavita Kosh से
किस्सों की बस, पढ़ूँ किताब,
‘मियाँ पढ़क्कू’ मिले खिताब।
रहूँ खेलने को बेताब,
जल्दी आए अपना दाँव।
गुस्से में खा जाऊँ ताव,
जिससे अपना रहे रुआब।
रात और दिन देखूँ खवाब-
‘करूँ न मेहनत, बनूँ नवाब’।
[बालमेला, नवंबर 1990]