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बन्धन / हरिमोहन सारस्वत
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आज, इस घड़ी, अचानक
अन्धेरी रात में
याद आ रहा है मुझे
मेरा पिछला 108वां जन्म
मैं कृष्ण तो नहीं
वृन्दावन का एक ग्वाला था
गीत बुनता था
कृष्ण के लिए
वो जब उसे अपनी बांसुरी
के सुरों में सजाता
तो मदहोश हो जाती थी
कुंज गली की सारी गोपियां
एक गोपी का अक्स
अभी तक जे़हन में है
वो बांसुरी की तान से ज्यादा
गीत के बोल सुनती थी
कृष्ण के संग
रास के वक्त
चोरी-चोरी मुझे तकती थी
कृष्ण ने एक दिन
उसका तकना
मेरा मुस्कुराना जान लिया
बस तभी से
मैं भोगता रहा हूं
107 जन्मों के बन्धन
उस गोपी की तलाश में..
आज, इस घड़ी, अचानक
अन्धेरी रात में
एक ख्याल उभरा है दिमाग में
कहीं तू वही तो नहीं ?
सच कहना
कहीं तेरा भी 108वां जन्म तो नहीं ?