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बन्धु / मुकुटधर पांडेय

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बन्धु, तुम्हारे हेतु आज है विकल हो रहे प्राण
जलती हृदय-देश में मेरे है विरहाग्नि महान
तुम्हें भले ही उसका दारुण ताप न हो मालूम
पर मेरा सर्वस्व उड़ गया, पड़ उसमें हो धूम।
स्वास्थ्य और सुख-शांति हो गये कब से मेरे नष्ट
किन्तु बढ़ रही गुप्त-कोष के दिशि भी यह, हा कष्ट!
श्रद्धा शुभ विश्वास, आत्म-बल, धैर्य और दृढ़भाव,
एक-एक कर भस्म हो गये, यह दुर्भाग्य प्रभाव
नहीं, भाग्य का नाम यहाँ बस है सन्तोष-विधान
मिलने का भी है क्या उससे कहो कभी वह त्राण?
मुझे पूछते हैं वे आकर ‘कुशल कहो हे मीत’
सुनते हो क्या उत्तर में मैं गाता हूँ जो गीत
अब तो निश्चय ही असह्य हो उठा मुझे यह ताप
भला कहीं होता इससे तो कठिन मृत्यु का शाप।
पल-पल मुझे पहाड़ हो रहे, यह कैसा प्रतिशोध
दर्शन ही जो नहीं भला तो दो बस अपना बोध
जगती-तल में जहाँ न ढूँढ़ा इसे कहाँ वह ठौर?
दे सकता यह रत्न तुम्हारे बिना न कोई और
यदि इतनी भी दया न हो तो जीवन यह बेकाम,
बन्धु, छोड़ दो मुझे, तुम्हीं क्या होगे कम बदनाम
आओ तो यह उठी हृदय में प्रबल अग्नि की ज्वाल
हाथों से तुम उसमें मेरी दो आहुति कराल।

-श्री शारदा, जुलाई, 1921