भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बब्बुल की बहुरिया / नेहा नरुका

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बन्द आँखें झुलसा चेहरा
रुक-रुक कर
रात गए जगाता है मुझे
नियति की ज़ंजीर थामे
बेचैन हो बैठ जाता हूँ
सोचता हूँ...
तुम गाँव में
कैसी होगी ‘बब्बुल की बहुरिया’
खाती-पीती होगी या नहीं
दिन-रात खटती रहती होगी
खेत की मेड़ पर,
सुबकती होगी लेकर मेरा नाम

सोचता हूँ ज़रूर गाँव में
कोई बात हुई होगी
अम्मा ने ही डाँट न दिया हो कहीं
अबकी फागुन न पहुँच सका था
ज़रूर चटकी होगी
कलाई की कोई लाल चूड़ी

मुझे याद करके
मेरी तस्वीर से लिपट-लिपट
बहुरिया ख़ूब फफकी होगी
गोरी-चिट्टी सत्रह साल की बहुरिया
ग़रीबी में दबी-दबी
गाँव में कितना झुलसी है

आह !
आज रात एक बार और
वह फिर झुलसी होगी
एक बार और
बड़बड़ाई होगी...