बर्बरों का इन्तज़ार / कंस्तांतिन कवाफ़ी
चौक पर एकत्र हम किसका इन्तज़ार कर रहे हैं आख़िरकार ?
— बर्बरों को आज यहाँ आना है ।
राज्यसभा में सब कुछ थमा-थमा-सा क्यों है आख़िरकार ?
सभासद कानून-वानून बनाना छोड़
हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे हैं आख़िरकार ?
— क्योंकि आज बर्बर आ रहे हैं।
अब सभासदों को कानून बनाने की ज़रूरत कहाँ रही ?
बर्बर एक बार यहाँ आ गए, तो वे ख़ुद बना लेंगे कानून- वानून ।
और हमारे महाराज आज इतने तड़के कैसे उठ गये ?
शाही पोशाक, सिर पर ताज —
शहर के फाटक पर क्यों तख़्तनशीन हैं महाराज आख़िरकार ?
— क्योंकि आज बर्बर आ रहे हैं !
उनके नेता का स्वागत महाराज को ही तो करना है !
उसे देने को ख़िताबों और उपाधियों से लदा-फदा
एक मानपत्र भी साथ लाए हैं महाराज ।
और हमारे दो वाणिज्यदूत व दण्डाधिकारी
ज़री के कामदार लाल चोगों में कैसे नुमूदार हुए आज आख़िरकार ?
जड़ाऊ, मणियों वाले, कंगन पहने हैं हाथों में
उँगलियों में क़ीमती पन्ने की अँगूठियाँ कसमसाती हुई
हाथों में सोने-चाँदी की मूँठों वाली नक़्क़ाशीदार छड़ियाँ ?...
— क्योंकि आज बर्बर आ रहे हैं
और ऐसी चीज़ों से चकाचौंध होते हैं बर्बर ।
और हमारे जाने माने वक्ता पहले की भाँति
व्याख्यान देने, अपनी बातें रखने क्यों नहीं आए आख़िरकार ?
— क्योंकि आज बर्बर आ रहे हैं
और उन्हें तिल का ताड़ शैली की
भाषणबाज़ी से ऊब होती है ।
और अचानक यह अफ़रा-तफ़री कैसी, यह दुचित्तापन ?
[कैसे लटक गए लोगों के चेहरे !]
ये सड़कें, ये चौराहे इतनी जल्दी ख़ाली क्यों होने लगे आख़िरकार ?
— क्योंकि रात घिर चुकी है और बर्बर आए नहीं
सरहद से अभी-अभी लौटे हमारे लोग बताते हैं
कि वहाँ तो बर्बरों का कोई अता-पता नहीं ।
बर्बर नहीं आए ! अब हमारा क्या होगा ?
उन्हीं से थोड़ी उम्मीद थी आख़िरकार ।
[1904]
सन् 1898 में रची गई इस कविता का दृश्यबन्ध कल्पना के आधार पर खड़ा किया गया है और पतनशील रोम के प्राचीन काल से जुड़ा है ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल