बसंत कें मोन परैत! / भास्करानन्द झा भास्कर
पड़ोरिया चौरमे
लोकक लागल करमान
अहुति, बर्छा ,
बंसी, लाठीक संग
कदोआहा झील ओ
गहींरगर पोखड़िमे
माछ मारबाक
तखन होयत छल
हर्खक अलगे अनूभूति!
भूतही बोन आ
थकिया तरका
भूतहा आमक गाछ्सं
धप धप खसैत छल
गछपकुआ आम
आ बच्चा सबहक कल्पना
अनायास चूमि लैत छल
हरखक अकाश
बिनु कोनो जतनसं!
मनकी चौड़ी तs
बूझु, मोनक मनके छल
“चुड़ैल” आ “रकसा”क
प्रेत छाया रहितो
भीमकाय अमली गाछ्क
चकमक खटमिठुआ फ़sर,
किछु कांच आ
किछु पाकल,
मीठ रहितो कोत क’
दैत रहय मूस बला दांतकें!
नैन्हपनमे सूनल
ओ गमैया श्लोक
मोन पड़ैत अछि एखनो-
“ थकिया चौर, पड़ोरिया चौर
मनकी चौड़ी नमो नम:”!
खरबन्ना आ
फ़करहन्ना बाधमे
एक बेर भेल रहै
बड्ड लाठी लठौवल
हंसेरी के हंसेरी शस्त्रधारी,
करमान लागल दर्शकमे
हमहु रही ठार भयाक्रान्त
जकर अमिट स्मृति
एखनो डरा दइए सहजे
अपन गामक मोन पारैत!
मुदा आब…
ओ ग्राम्य-स्मृति सेहो
झकरि रहल अछि
चौक तर पूरना पाकड़ि जकं
अतीतक नीक-अधलाह स्मृति
विस्मृतिक कोनिया-कोलकी
चौर-चांचर-बोन-बाध आदिमे
ओधबाध भ’ गेल अछि,
जखन मोन पाड़ैत हम
बौयाय- औनाय लागैत छी
कियेक त’ -
सुझाइ नहि दैत अछि
बाल-बसंतक ओ बीतलाहा सुखद क्षण
तप्पत जीनगीक धीपल-चौबटिया पर!