भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बसन्त / चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह 'आरोही'
Kavita Kosh से
आइल मस्त महीना सजनी, धरती पर मुस्कान रे।।
झुकल आम के डाढ़ि बौर से, भीतर कोइली बोलल
साँझ समीरन बहल मस्त हो, बिरहिनि के मन डोलल
महुआ के डाढ़ी पर उतरल, हारिल लेइ जमात रे।। आइल.....
लाल सुनर पतई पेड़न के फुलुंगी पर लहराइल
मारि-मारि ठोकर राहिन के नीलकंठ मँड़राइल
भइल पलास लाल दुहुटुहु रहल एक ना पात रे।। आइल.....
चढ़त गोराई बा गेहूँ पर, कतो बूँट कइलाइल
ऊगल चमचम चान गगन में, गोरिया देखि मुसुकाइल
एही अॅजोर में आवे के रहे पिया के बात रे।। आइल....