भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बहार आई है झूलन की घटा छाई है सावन की / महेन्द्र मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहार आई है झूलन की घटा छाई है सावन की।
छटा आई है मवसिम की सदा बिहरी जगावन की।
कहीं है शोर मोरन की कहीं पपिहा की बोलन की
कही झिंगुर झनकते हैं कही विरही सतावन की।
कहीं बिजली चमकती है कहीं बदरी लचकती है।
कहीं बूँदें बरसती है सोहावन दिन हैं झूलन की।
बजे मिरदंग ओ तबला तूमरा ओ सितारन की।
झुलावें राम ओ लछुमन को झूलें कुंडल कानन की।
झुलावें रामचन्दर को महेन्दर रूप पावन की।
करेंगे पार भवसागर नहीं उम्मीद आवन की।