Last modified on 5 मार्च 2012, at 21:02

बाँस-बाँस पानी है/ शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

बाँस-बाँस पानी है
काग़ज़ की नाव
पैसा पा डोल रहे
अंगद के पाँव

सुविधाएँ माँग रहीं
मनमाने दाम,
खोखली व्यवस्था के
अश्व बेलगाम,
कौवों की काँव-काँव
राजा के गाँव

उगल रहे होंठों से
पल-पल पर ज्वाल
लोकतंत्र घाटी के
अगिया बैताल
शब्दों का सम्मोहन
वादों की छाँव

झूठों को राजसभा
सच्चों को जेल
अपराधी खेल रहे
सत्ता का खेल
रोटी के लाले हैं
व्यर्थ के दिखाव
बाँस-बाँस पानी है
काग़ज़ की नाव