भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बाकी अभी बारी / हरीश भादानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो
सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो

         कोई दुनियां न बने
         रंगे-लहू के ख्याल
         गोया रेत ही पर तस्वीर उतारी यारो

देखा ही किए झील
वो समंदर वो पहाड़
अपनी हर आंख सियाही ने बुहारी यारो

जहां सड़क गली
आंगन जैसे बाजार चले
न चले अपनी न चले यहां असआरी यारो

रहबरों तक गई
बो तलाश रहे साथ सफ़र
उसकी आबरू हर बार उतारी यारो

हां निढाल तो हैं
पर कोई चलना तो कहे
मन के पांवों की बाकी अभी बारी यारो

उठके डूबे है कहीं
अपनी आवाज यहां
एक आग़ाज से ही सिलसिला जारी यारो

अब जो बदलो तो कहीं
हो गुनहगार हरीश
वही रंगत वे ही दौर वही यारी यारो

उम्र सारी इस बयावां में गुजारी यारो
सर्द गुमसुम ही रहा हर सांस पै तारी यारो