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बापू / रामगोपाल 'रुद्र'

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जब तक जग में थे, यम ने मात न मानी,
रज-तम ने सत्-क्षिति भी सिकता ही जानी;
अब क्यों न भजे भव-गज, पद-रज ले सिर पर!
जब स्वयं ब्रह्‍मपद ने मिट्‍टी पहचानी!

तुम आए, जीवन आया, मरु भी फूले;
तुम कूके, लहलह हुए ठूँठ भी झूले;
तुम उड़े कि उघरा अन्‍त, रह गए टेसू!
अब जिधर देखिए, बालू और बगूले!

जिस पद पर इनको छोड़ उड़े तुम ऊपर,
तुम छुटे कि सब बेछूट आ रहे भू पर;
ये पतित पत्र पहले पद तक तो पहुँचे!
हैं चले हिमाचल चढ़ने, चढ़कर लू पर!

क्या कहा जाय अब हाल? नहीं तुम जब हो
बारात तुम्हारी है, पर तुम भी गुम हो!
थे कभी फूल तुम इसी धूल-धरती के!
अब तो गिरिवर भी कहते, नीलकुसुम हो!

बनिया बन तुम आए थे, सो हे ब्राह्‍मण!
बनिया ही बने रहे सत् के, आजीवन;
हे कृपण! एक भी पुण्य न छूटा तुमसे!
तुम गए कि जग रह गया नितान्‍त अकिंचन!

पिक-कूक कहाँ? हाँ, भय की भूँक बहुत है;
मलयज है लूक कि फण की फूँक बहुत है;
आचरण वचन में, दर्शन बाने में
साधना मूक है, मुँह में थूक बहुत है!

हो रहा जुए का नाल सत्य की पूँजी;
तालोंवालों के हाथ, नीति की कूँजी;
बगुलों के हक़ में मान! हँस रोते हैं
क्या खायँ, हाय! घर में है भाँग न भूँजी!

पानी भरते पण्डित, खण्डित चलने में;
शकटसुर ताक रहे शिशु, को पलने में;
बाहर के दृग भीतर क्या देखें, जिनको
पूर्वोदय दिखता है पश्‍चिम ढलने में!

कुछ समझ नहीं आता है, क्या करना है,
किस ओर डगर है, किधर पाँव धरना है;
अब भी तुमसे ही आशा है, हे स्वर्गत!
यह अन्‍धतमस भी तुमको ही हरना है!

भारत-भव थे, अब तो स्वरीय हो, बापू!
महिमापति थे, अब अप्‍सरीय हो, बापू!
दो अमृत उसे भी, पर भू को पहले दो
स्वर्गीय! प्रथम तुम भारतीय हो, बापू!