(यै अध्याय में मेधा ऋषि राजा सुरथ के देवी चरित्र के पाठ के माहात्म्य देवी के मुँहँ से देवी माहात्म्य के फल बतलाबै छै। यही लेली है अध्याय देवी माहात्म्य में फल स्तुति के नाम सें जानलोॅ जाय छै।)
देवीं ने बतलैलकी देवोॅ केॅ,
निश्चय बाधा ओकरोॅ छँटतै।
एकाग्र चित्त हमरोॅ रोजे,
जें ध्यान स्तवन ठो करतै।
जें वधै पाठ मधुकैटभ, महिख औ शुम्भ-निशुम्भोॅ के करतै,
अष्टमी, चतुर्दशी नाँमी जें महिमा सुनि केॅ भक्ति धरतै।
बनि पाप मुक्त द्व्रारिद्रयहीन वे स्वजन संगें संयोग करै,
सभ कष्ट विछोहोॅ से निवृत बनि धन के समुचित भोग करै।
हौ मुक्त होतै शत्रु, दस्यु, आगिन पानी के कोपोॅ सें,
हौ दूर होते नृप केरोॅ अवज्ञां, अस्त्र-शस्त्र के धापोॅ सें।
यै लेली है महिमा पढ़ी-सुनी, एकाग्र बनि भक्ति में जुटै,
जै सें कल्याण के संग त्रिविध उत्पात महामारी भी छँटै।
हौ मन्दिर हमरोॅ घर होय छै, जेकरा में विधोॅ के मान हुवै,
बलि, पूजन, होम पठन श्रवणोॅ सें, महौत्सवोॅ के भान हुवै।
बलि, पूजन होम जे नरें करै, जानी केॅ या अनजान्हैॅ सें,
हौ खुशी-खुशी सब ग्रहण करौं तारौं ओकरा वरदान्है में।
जें शरद् काल भक्ति पूर्वक नवराति में महिमा गाबै छै,
बाधा से मुक्त हमरें प्रसादें धन, धान्य, पुत्र वें पाबै छै।
महिमा साथैं अवतार कथा रण पराक्रमोॅ के पाठ सुनै,
ओकरोॅ शत्रु ठो नाश हुवै, कल्याण कुलोॅ के तार बुनै।
महिमा श्रवणोॅ सें ग्रह-पीड़ा दुःस्वप्न तुरत ही शान्त हुवै,
संगठन, बालगृह सभ्भे सधै भावी अरिता के अन्त हुवै।
महिमां से दुराचार नष्टै, पाठोॅ में शान्ति वास करै,
राक्षस भूतोॅ के संग पिशाच्हौ के भी सत्यानाश करै।
पशु, फूल, अर्ध्य धूपोॅ-दीपोॅ संग गंध सामग्री लै पूजै,
ब्राह्मण भोजन, अभिषेक, होम, अर्पण दानों करी भी पूजै।
है सभ टा करला सें जत्तेॅ सालो भरि पूजन जे भेलै,
ओतनैं ही खुशी उत्तम चरित्र सुनला से हमरोॅ होय गेलै।
हमरोॅ कीर्तन से भूत रक्ष्य, रण के चरित्र सें दैत्य नाश,
सुनला सें अरि भय नष्ट करै तीन्हूं में हमरोॅ रहै वास।
हे सकल देव! हे ऋषि मुनी! हमरोॅ जे स्तुति तों गैल्हौॅ,
फिन ब्रह्मा के स्तुति संगें, कल्याणमयी बुद्धि भेल्हौं।
जंगलोॅ में या निर्जन रस्तां, अथवा दावानल में पड़थैं,
निर्जन जग्घां, डाकू पंजां, या दुश्मन के हाथैं अैथैं।
फिन बाघ, सिंह, हाथी फेरें अथवा नृपकोप सें मृत्यु मुखें,
सिन्धु में नाव तूफान फँसै, या रण पीड़ा दारूण दुःखें।
अेन्हों बाधा में पड़ला पर, हमरोॅ चरित्र जें गावै छै,
सब बाधा के छुटकारा में हमरे प्रसाद वे पावै छै।
ऋषि बोललै है कही देवी तबेॅ देखथैं ही अन्तर्धान भेलै,
शत्रु सें निर्भय देव तबेॅ अधिकार भोग में लिप्त होलै।
राजन! है रङ अम्बिका कृपां कल्याण विश्व के ही बनलै,
विध्वंशक शुम्भ के मरला पर बांकी असुरा पाताल गेलै।
यद्यपि हुनी तेॅ नित्य छेकी फिन भी जगती के रक्षण में,
हुनी घुरी-घुरी आवी प्रगटै तिरलोकोॅ के संरक्षण में।
हुनियें मोहित है जग केॅ करै, जग केॅ जनमोॅ भी हुनियें दै,
सन्तुष्ट होय प्रार्थनां ढरी जगें विज्ञानोॅ समृद्धि दै।
हे मनुजेश्वर! फिन महाप्रलय के काल महामारी बनि केॅ,
फिन महाकाली के रूप धरि, ब्रह्माण्डोॅ में व्यापित होय केॅ।
हौ सनातनी देवी वक्ती पर, प्राणी के रक्षण में लगै,
जे स्वयं महामारी छै अजन्मा, श्रृष्टि रूपें आबी केॅ जगै।
मनुजोॅ के अभ्युदय बनि लक्ष्मी रूपें उन्नत राह करै,
फिन हौ विनाश बनि दलिद्दरी अवनति केॅ राहें जाय धरै।
हुनीं फूल, धूप आरो गन्ध सिनीं से भक्ति स्तवन करला पेॅ,
धन, पुत्र, बुद्धि उत्तम गति दै, छै समुचित पूजन करला सें॥41॥
(यै अध्याय में उवाच 2 अर्ध श्लोक 2 आरो श्लोक 36 छै, कुल मिलाय केॅ 630+41=671 मंत्र भेलै।)