बारहसिंगे का माथा / गोविन्द कुमार 'गुंजन'
वह टंगा है खूॅँटी पर
उसे वहां टंगंे हुए बीत गये कई बरस
कोई पचास साल पहले मारा गया
वह एक बारहसिंगे का माथा है
अपने सींग अब भी अपने माथे पर उठाए हुए
वह सिर अब झुक नहीं सकता
किसी भी लज्जा जनक बात पर
कटने वाले सिर झुकते भी कहॉं है
उसकी ऑंखों में जो जंगल है
वह कब का कट चुका है
मरे हुए नाग की ऑंखों में
थमी हुई हत्यारे की तस्वीर जैसे मिटती नहीं किंवदंतियों में
कुछ ऐसे ही
बारह सिंगे की ऑंखों में थमा हुआ है बहुत कुछ
हवा रूकी हुई है पत्तियों के बीच,
हिरणों का एक झुंड है चौकड़ी भरता हुआ
और एक गर्माहट सांसों की
केली के बाद महकता हुआ पसीना और
हरी हरी मृदुल दुर्वाओं का स्वाद
ठीक पसलियों के पास धंसा हुआ एक तीर
लहू की लकीर जमीन पर बनाती हुई
आखिरी दौड़
दर्द से उबलकर ऑंखों का थमना
कोई पचास बरस से
थमा हुआ यह बारह सिंगे का संसार
खूंटी पर टंगे टंगे
आदमी की दुनिया के बरक्स
न कुछ सोचता है न कुछ विचारता है
वह भीतर से
मगर देखता रहता है आदमी का घर
आदमी की दुनिया में
उसे नजर आता है एक जंगल
जो तमाम जंगलों के कट जाने के बाद भी
काटा न जा सकेगा कभी
आदिम युग से
जंगल से फरार आदमी
फिर फिर चलाता है तीर
उसके अपने ही होते रहते हैं शिकार
आदमी न अपना सिर काटता है
न झुकाता है कहीं
उसके झुके हुए सिर भी भीतर से तने हुए हैं
उसके कटे हुए सिर भी
किसी दीवार पर नहीं टंगते
जो देख सके अपनी दुनिया जानवरों की दुनिया के बरक्स
बिना विचारे बिना सोचे शब्दों के बाहर
दिलों के भीतर
पसलियों के पास धंसे हुए तीरों के घाव
जख्मों की कसक और किसी हरी घास पर ष्
शायद ढलते हुए सूरज के साथ
उसे भी याद आ सके कोई बीती हुई प्यार भरी शाम