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बारिश : चार प्रेम कविताएँ-3 / स्वप्निल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
एक दिन मैं तुम्हें
भीगता हुआ देखना चाहता हूँ
प्रिये
बरिश हो और हवा भी हो
झकझोर
तुम जंगल का रास्ता भूल कर
भीग रही हो
एक निचाट युवा पेड़ की तरह
तुम अकेले भीगो
मैं भटके हुए मेघ की तरह
तुम्हें देखूँ
तुम्हें पता भी न चले कि
मैं तुम्हें देख रहा हूँ
फूल की तरह खिलते हुए
तुम्हारे अंग-अंग को देखूँ
और मुझे पृथ्वी की याद आए