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बिखराव-जुड़ाव / प्रताप सहगल
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खेतों में बिखरे धान की तरह
हम भी बिखर गए हैं
ढूंढते हैं पांव
कोई जानी-पहचानी जगह
पर फिसल-फिसल
कह रहा कोई सवेरा
क्यों अभागे डालता है
उस जगह तू आज डेरा
है जहां न चांदनी
न कूल कोई न बसेरा
बस आज हम बिखरे हुए हैं.
पर कहीं पर कोई बिन्दु
ट्रेन के डिब्बों की भांति
जोड़ता है
हर उखड़ते दिल का कोई सूना कोना
बोलता है
जुड़ अरे तू जुड़, हो सके तो जुड़
जुड़ सके तो जुड़/अरे आ
ट्रेन के डिब्बों-सा जुड़
1970