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बिना सबद रो प्रेमगीत / किशोर कल्पनाकांत

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‘म्हारै प्रेम री
अेक कविता रच देवो!’
बोली अेक मदवी-मरवण
भुजबंधां मांय भर्यां अथाग पिरथी
आभै‘र पतळा-समेत अेकमेक
रळवां है
जिण मांय अेक सुर
सुर!
जिको आकारविहूण है
अदीठ है
उणनै उचक्यां फिरूं बोम मांय
कितरो नैनो-सो है
ओ सुर!
कितरो विराट है
इणरो विस्तार!
समाहित है
घुळवां है
अेकूंकार, जिण मांय
आखी रचणा-तणी सिंसार!
चाखूं हूं चकासा
म्हारा कंठ भूलग्यो है भासा!
‘मनै रळाय लेवो
थारा प्राणां मांय
थारा‘र म्हारा प्राण
महाप्राण रा अंस है!’
आवेग‘र आवेस सूं थरहर कंप्यो राज!
आ है तादात्मय री प्रक्रिया
विरह रा सात-समदां उपरां
अेक सेतुबंध
सातूं-समद-ई सातू-सूर होसी स्यात!
सेतुबंध, भुजबंध सूं अळगो है
कानां-पड़ती भणकार रा सबद
कद घड़ीजै!
अधर-होठां री रेखड़यां उपरां
सुपनाळा चित्राम कोरीजै!
मैं कियां रचूं
बा कविता?
थारै प्रेम री कविता!
स्रिस्टी रै नितनेम री कविता!
प्रेम तो जिस्यो थारो
बिस्यो ई सगळां रो!
अेक-स्यारखो है!
म्हारै मन रै ढोलै री मरवण
तू-ई है!
म्हारै सरव-बोध री उरवसी
तू-ई है!
म्हारै आतमग्यान री मेनका
तू-ई है!
मैं मात्र अेक पुरूष
तू नारी!
थारै प्रेम री कविता
रचण बैठयो हूं!
म्हारो ओ प्रेमगीत
तू सुण सकै के...?