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बिल्ली आ गई है मुंडेर पर / मनमोहन

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बिल्ली आ गई है
मुंडेर पर
ख़ून है मुंडेर पर अभी ताज़ा
कितने ही पंख गिरे हैं
चारों ओर

उसकी आँखें हैं
जैसे जंगल जल रहे हों
और आंधियाँ चल रही हों

उसकी आँखें हैं
शिकार के लिए पागल
लेकिन सधे हुए हैं
क़दम उसके
एक-एक गिने हुए
हज के रास्ते में लगी है शायद
भूख उसको

बिल्ली आ गई है
मुंडेर पर

(1977)

(आपातकाल के विरोध में मनमोहन की `राजा का बाजा बजा, `चतुरलाल` आदि कई कविताएँ बेहद चर्चित हुई थीं। `बिल्ली आ गई है मुंडेर पर` आपातकाल के बाद लिखी गई थी। तब बेलची में दलितों की हत्या कर दी गई थी। बुरी तरह निराश इंदिरा गांधी की मानो बांछें खिल गई थीं। वे हाथी पर बैठकर बेलची पहुँचीं। इस तरह यह आपातकाल की खलनायिका के `पुनर्जीवन' की शुरुआत थी।)